Tuesday 28 January 2014

ऐसे तो खत्म नहीं हो सकता भ्रष्टाचार

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इस समय भ्रष्टाचार और ईमानदारी का बड़ा शोर है। जिसे देखो वही इस पर भाषण देता नजर आ जाता है। कुछ लोगों ने यह मान लिया है कि देश से भ्रष्टाचार को खत्म कर दिया जाए तो सारी विसंगतियां की खत्म हो जाएंगी। इसलिए ईमानदारी का चोला पहनकर कुछ लोग राजनीति का शुद्धिकरण करने निकल पड़े हैं। इनका मानना है कि सियासत में बहुत भ्रष्टाचार है। सियासत के भ्रष्टाचार को दूर कर दिया तो गंगा पवित्र हो जाएगी।
यह महा भ्रम है। यह विभ्रम का ऐसा पाठ है जिसका न कोई सिद्धांत हैं और न ही विचार। यह किसी सड़ी-गली व्यवस्था को टानिक देने का ऐसा कृत्य है जिसे इतिहास शायद ही माफ करे।

दरअसल, किसी देश के विकास में भ्रष्टाचार उतना बाधक नहीं होता जितना कि बेरोजगारी, गरीबी और असमानता। भ्रष्टाचार तो इन्हीं तीनों विसंगतियों से उपजता है। जाहिर है कि यदि भ्रष्टाचार को खत्म करना है तो बेरोजगारी, गरीबी और असमानता को खत्म करना होगा। लेकिन इसकी बात कोई नहीं करता। हर कोई देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए उतावला है और कुछ भी ऊल जुलूल बोले जा रहा है। कोई तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर कल्पना की पतंग उड़ा रहा है तो कोई ईमानदारी के लबादे में व्यवस्था परिवर्तन का ख्वाब दिखा रहा है।
दरअसल, देश में इस समय सपने बिक रहे हैं। अपने सपने और अपनी ख्वाहिश पूरी करने के लिए ऐसा चक्रव्यूह बनाया जा रहा है जिसमें हत्या आम जनता की ही की जाएगी। इस चक्रव्यूह का अभिमन्यु वह जनता है, जो इनकी चालाकियों को तो जानती है लेकिन उनके बुने जाल से निकलना नहीं जानती।
ईमानदारी क्या है? एक अमूर्त कृत्य, जो कभी-कभी किसी व्यक्ति के व्यवहार में मूर्त होती है। ऐसा आदर्श है, जो दिखावटी अधिक है और सच से दूर है।  इसी तरह सच भी एक अमूर्त क्रिया है। सच बोलने वाला सच के करीब भी नहीं होता। सौ प्रतिशत सत्यवादी होने का दावा करने वाला भी सच से कोसों दूर होता है।
दरअसल, दोनों ही क्रियाएं संस्कृति से जुड़ी हैं। इनकी अभिव्यक्ति आदमी के व्यवहार में होती है। ईमानदारी और सच वाली संस्कृति किसी प्रकार की टोपी पहनने से नहीं आती, उसे दिन प्रतिदिन के व्यवहार में उतरना पड़ता है। लेकिन बेरोजगारी, गरीबी और असमानता के वातावरण में इसे व्यवहार में कदापि नहीं उतारा जा सकता। ऐसे में या तो टोपी पहनी जाएगी या तो पहनाई जाएगी। आजकल टोपी पहनने और पहनाने के चलन को आदर्शवाद के लबादे में दिखाया जा रहा है।

गौरैया के ल‌िए घर





गौरैया के गायब होने की कहानी कई वर्षों से सुन रहा हूं। इस पर यकीन भी है। चंडीगढ़ और आसपास इस ट्राईस‌िटी में काफी हर‌ियाली है मगर गौरैया आपको द‌िख जाए तो आप खुशकिस्मत हैं। ‌अचानक कुछ दिनों से इन च‌िड़‌ियों का एक झुंड घर के सामने आकर तारों पर बैठने लगा है। झुंड में ज्यादा नहीं आठ या दस गौरैया हैं।
गौरैया को लेकर एक अपराध बोध भी है क‌ि क्या हमारी वजह से गौरैया गायब हुई। काफी लंबे समय बाद इन्हें देखकर बचपन याद हो आया। तब घरों में गौरैया की चहचहाट से ही बच्चे जागते थे। पिसवाने से पहले गेहूं धोकर जब धूप में सुखाये जाते तो बच्चों की ड्यूटी लगती थी कि वे चिंड़ियों को उड़ाएं। बच्चों और च‌िड़‌िया का अपना भवनात्मक संबंध था। वे रखवाली वाले दानों को खुद ब‌िखेर कर च‌िड़ियों को बुलाते थे। चुपचाप शांत होकर उन्हें चुगते देखते थे ताक‌ि वे उड़ न जाएं। चिड़‌िया से ज्ञानवर्धन भी होता था कोई न कोई बुजुर्ग यह बता ही देता था कि ज‌िस गोरिया की चोंच के नीचे गर्दन पर काली दाढ़ी है वह नर है और सफेद गर्दन वाली मादा। गौरैया को पकड़ने की कला भी बच्चों ने खुद विकस‌ित कर रखी थी। टोकरी को ऐसी डंडी से ट‌िकाकर खड़ा करते थे ज‌िसमें लंबी रस्सी बंधी होती थी। टोकरी के नीचे रोटी के टुकड़े रहते थे। च‌िड़िया के आते ही रस्सी खींचकर टोकरी ग‌िरा दी जाती थी। बेचारी च‌िड़‌िया उसमें फंस जाती थी। फिर च‌िड़‌िया को पकड़ कर लाल या नीली स्याही में रंगा जाता था और छोड़ द‌िया जाता था। उस रंगी चड़ि‌या का कई द‌िन तक इंतजार किया जाता था। उसके फ‌िर से द‌िखने पर आपार खुशी होती थी। मगर क्या इन रंगों के खेल से गौरेया गायब हुई।
सबके एक ही आत्मा का अंश होने का दर्शन भी च‌ि‌ड़‌िया ने ही बचपन में पढ़ाया। गौरैया पुराने शहतीर वाले घरों में घौंसला बनाती थी। वह बया की तरह कुशल कारीगर नहीं थी। बसंत बीतने के बाद चैत की गर्म‌ियां शुरू होतीं तो चिड़‌िया का कोई बच्चा फर्श पर ग‌िरा द‌िख जाता था। बच्चों में तब उसे बचाने की जुगत शुरू होती। उसे पानी प‌िलाया जाता, उसके पास दाने डाले जाते। कोई बहादुर बच्चा उसे ग‌िलग‌िले जीव को हथेली पर भी उठा लेता था। इस सब कवायद के बीच वह दम तोड़ देता। दुख से सबकी आंखें भर आती थीं। तब कोई बड़ा यह समझाता था सब जीवों की आत्मा एक ही है। अगर क‌‌िसी को दुख होता है तो सबको दुख होता है। इसल‌िए सारी दुन‌िया दुखी है क्योंक‌ि कोई न कोई दुखी है।
हम बड़े हुए। गौरैया गायब हो गई। घर एयरकंडीशंड हो गए। उनमें शहतीरें और आले नहीं रहे। च‌िड़िया अपने घौंसले कहां बनाती। पेड़ों पर तो कौवा उसके अंडे-बच्चे चुरा ले जाता। लोग म‌िलों का प‌िसा खाने लगे। छतों पर अब गेहूं नहीं सुखाए जाते। चक्क‌ियां और चड़िया दोनों कम हो गईं।
वन्य प्राणी व‌िशेषज्ञ बता रहे हैं क‌ि मोबाइल क्रांत‌ि से च‌िड़‌िया पर बुरा प्रभाव पड़ा है। पर गौरेया की असली समस्या यह है क‌ि वह कहां रहे और क्या खाए। हम चाहें तो च‌िड़या के ल‌िए इतना कर सकते हैं। घर की ऊपरी मंज‌िल पर झीने की छत्त शहतीर और टीन की हो सकती है। इसमें च‌िड़िया के घौंसले के ल‌िए जगह हो सकती है। च‌िड़‌िया आएगी तो बच्चे दानें डाल ही देंगे। बदले में च‌िड़‌िया आपके बच्चों को जीवन का दर्शन भी बताएगी।
हमारे लोकगीतों में च‌िड़या और बेटी की तुलना है।
जब से च‌िड़‌ियों का झुंड घर के सामने बैठने लगा है तब से मन में यह ज‌िज्ञासा है क‌ि यह रह कहां रहा है? इनका घर सुरक्ष‌ित होना चाह‌िए। सर्द‌ियां बीत रही हैं। बसंत आने वाला है। गर्म‌ियां शुरू होते ही अंडों से बच्चे न‌िकलेंगे और कौए ताक में होंगे।