गौरैया के गायब होने की कहानी कई वर्षों से सुन रहा हूं। इस पर यकीन भी है। चंडीगढ़ और आसपास इस ट्राईसिटी में काफी हरियाली है मगर गौरैया आपको दिख जाए तो आप खुशकिस्मत हैं। अचानक कुछ दिनों से इन चिड़ियों का एक झुंड घर के सामने आकर तारों पर बैठने लगा है। झुंड में ज्यादा नहीं आठ या दस गौरैया हैं।
गौरैया को लेकर एक अपराध बोध भी है कि क्या हमारी वजह से गौरैया गायब हुई। काफी लंबे समय बाद इन्हें देखकर बचपन याद हो आया। तब घरों में गौरैया की चहचहाट से ही बच्चे जागते थे। पिसवाने से पहले गेहूं धोकर जब धूप में सुखाये जाते तो बच्चों की ड्यूटी लगती थी कि वे चिंड़ियों को उड़ाएं। बच्चों और चिड़िया का अपना भवनात्मक संबंध था। वे रखवाली वाले दानों को खुद बिखेर कर चिड़ियों को बुलाते थे। चुपचाप शांत होकर उन्हें चुगते देखते थे ताकि वे उड़ न जाएं। चिड़िया से ज्ञानवर्धन भी होता था कोई न कोई बुजुर्ग यह बता ही देता था कि जिस गोरिया की चोंच के नीचे गर्दन पर काली दाढ़ी है वह नर है और सफेद गर्दन वाली मादा। गौरैया को पकड़ने की कला भी बच्चों ने खुद विकसित कर रखी थी। टोकरी को ऐसी डंडी से टिकाकर खड़ा करते थे जिसमें लंबी रस्सी बंधी होती थी। टोकरी के नीचे रोटी के टुकड़े रहते थे। चिड़िया के आते ही रस्सी खींचकर टोकरी गिरा दी जाती थी। बेचारी चिड़िया उसमें फंस जाती थी। फिर चिड़िया को पकड़ कर लाल या नीली स्याही में रंगा जाता था और छोड़ दिया जाता था। उस रंगी चड़िया का कई दिन तक इंतजार किया जाता था। उसके फिर से दिखने पर आपार खुशी होती थी। मगर क्या इन रंगों के खेल से गौरेया गायब हुई।
सबके एक ही आत्मा का अंश होने का दर्शन भी चिड़िया ने ही बचपन में पढ़ाया। गौरैया पुराने शहतीर वाले घरों में घौंसला बनाती थी। वह बया की तरह कुशल कारीगर नहीं थी। बसंत बीतने के बाद चैत की गर्मियां शुरू होतीं तो चिड़िया का कोई बच्चा फर्श पर गिरा दिख जाता था। बच्चों में तब उसे बचाने की जुगत शुरू होती। उसे पानी पिलाया जाता, उसके पास दाने डाले जाते। कोई बहादुर बच्चा उसे गिलगिले जीव को हथेली पर भी उठा लेता था। इस सब कवायद के बीच वह दम तोड़ देता। दुख से सबकी आंखें भर आती थीं। तब कोई बड़ा यह समझाता था सब जीवों की आत्मा एक ही है। अगर किसी को दुख होता है तो सबको दुख होता है। इसलिए सारी दुनिया दुखी है क्योंकि कोई न कोई दुखी है।
हम बड़े हुए। गौरैया गायब हो गई। घर एयरकंडीशंड हो गए। उनमें शहतीरें और आले नहीं रहे। चिड़िया अपने घौंसले कहां बनाती। पेड़ों पर तो कौवा उसके अंडे-बच्चे चुरा ले जाता। लोग मिलों का पिसा खाने लगे। छतों पर अब गेहूं नहीं सुखाए जाते। चक्कियां और चड़िया दोनों कम हो गईं।
वन्य प्राणी विशेषज्ञ बता रहे हैं कि मोबाइल क्रांति से चिड़िया पर बुरा प्रभाव पड़ा है। पर गौरेया की असली समस्या यह है कि वह कहां रहे और क्या खाए। हम चाहें तो चिड़या के लिए इतना कर सकते हैं। घर की ऊपरी मंजिल पर झीने की छत्त शहतीर और टीन की हो सकती है। इसमें चिड़िया के घौंसले के लिए जगह हो सकती है। चिड़िया आएगी तो बच्चे दानें डाल ही देंगे। बदले में चिड़िया आपके बच्चों को जीवन का दर्शन भी बताएगी।
हमारे लोकगीतों में चिड़या और बेटी की तुलना है।
जब से चिड़ियों का झुंड घर के सामने बैठने लगा है तब से मन में यह जिज्ञासा है कि यह रह कहां रहा है? इनका घर सुरक्षित होना चाहिए। सर्दियां बीत रही हैं। बसंत आने वाला है। गर्मियां शुरू होते ही अंडों से बच्चे निकलेंगे और कौए ताक में होंगे।
गौरैया के लिए घर
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